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«اللهُمَّ إِنِّي ظَلَمْتُ نَفْسِي ظُلْمًا كَثِيرًا وَلَا يَغْفِرُ الذُّنُوبَ إِلَّا أَنْتَ، فَاغْفِرْ لِي مَغْفِرَةً مِنْ عِنْدِكَ، وَارْحَمْنِي إِنَّكَ أَنْتَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ»
{وهو دعاء يُشرع قوله في الصلاة فيقال في السجود أو بعد التشهد الأخير قبل السلام}

“अल्लाहुम्मा इन्नी ज़लम्तु नफ्सी ज़ुल्मन कसीरन वला यग्फ़िरूज़्ज़ुनूबा इल्ला अन्त, फ़ग्फिर् ली मग्फि-रतन मिन् इंदिक, वर्-ह़म्नी, इन्नका अन्तल-ग़फूरूर्रह़ीम”

“ऐ अल्लाह मैंने अपनी जान पर बहुत ज़ुल्म किया और तेरे सिवा कोई दूसरा गुनाहों को माफ़ नही कर सकता इसलिए मुझे अपने पास से क्षमा प्रदान कर और मुझ पर दया कर निःसंदेह तू बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत दयालु है”

(यह दुआ नमाज़ में पढ़ना धर्मसंगत है इसलिए इसे सज्दे में या अंतिम तशह्हुद में सलाम फेरने से पहले पढ़ना चाहिए)

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