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(اللَّهُمَّ فَاطِرَ السَّمَوَاتِ وَالْأَرْضِ، عَالِمَ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ، لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ رَبَّ كُلِّ شَيْءٍ وَمَلِيكَهُ، أَعُوذُ بِكَ مِنْ شَرِّ نَفْسِي وَمِنْ شَرِّ الشَّيْطَانِ وَشِرْكِهِ، وَأَنْ أَقْتَرِفَ عَلَى نَفْسِي سُوءًا، أَوْ أَجُرَّهُ إِلَى مُسْلِمٍ)

“अल्लाहुम्मा फ़ातिरस्-समावाति वल-अर्ज़ि, आलिमल-ग़ैबि वश्शहादति, ला इलाहा इल्ला अन्ता, रब्बा कुल्लि शैइन व मलीकहु, अऊज़ु बिका मिन शर्रि नफ्सी व मिन शर्रिश्शैतानि व शिर्किहि, व अन् अक़्तरिफ़ा अला नफ्सी सू-अन, औ अजुर्रहू इला मुस्लिम”

“ऐ अल्लाह! आकाशों और धरती के रचयिता, परोक्ष और प्रत्यक्ष के जानने वाले! तेरे सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं, हर चीज़ के पालनहार और उसके मालिक! मैं तेरी शरण में आता हूँ अपनी आत्मा की बुराई से और शैतान की बुराई और उसके शिर्क से, और इस बात से कि मैं अपनी आत्मा पर कोई बुराई करूँ, या किसी मुसलमान के लिए बुराई का कारण बनूँ”

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